न जाने कहाँ है ,
कल रात, बालकनी में बैठे हुए,
चाँद को तकते-तकते,
बस यूँ ही रखदी थी,
हाँ!! याद आया,
चाँद की नज़रें थी उस पर,
पर, मैंने तो वहीं रखदी थी,
एक किताब तले !!
नींद का झोंका सा आया था,
और मैं सोने चली गई,
सुबह आकर देखा तो है ही नहीं,
हर पन्ने पर नज़र घुमाई,
पूरी बालकनी छान मारी,
पर नज़र नहीं आई वो मुझे!!
आज अचानक आँख खुली,
तो देखा!! कोई गा रहा है,
मीठा-मीठा सा दर्द अपना कोई सुना रहा है,
बाहर निकली तो मैंने देखा,
ये जनाब तो कल नज़रे टिकाये बैठे थे उसपे,
मैंने फिर अपनी बालकनी में छानबीन करते देखा था इनको,
और अब देखो ! पूरे शहर को अपनी कहके
ग़ज़ल मेरी सुना रहे हैं!!
- गुंजन
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