सवालों ने
कुछ यूँ है घेरा
उलझनों का
अरमानों पे है बसेरा
ख्वाहिशें हैं
की मानो दरिया
डूब जाऊं इसमें
पार लागादूं नैया
पीछे मुड़ने
की बात बे-सबब
मंजिल तो वहाँ है
रुके न अब ये क़दम
फ़ुरसत के लमहे
राहत की साँस
मिलेगी अब तभी
जब मंजिल का होगा एहसास
यूँ खुद पे
खुद का यकीन
यूँ दूर से दिखती
मंजिल की वो तसवीर
उसको नज़दीक से
निहारना है
ये खुद से किया
मैंने वादा है…
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